शनिवार, जनवरी 23, 2010

लाइम-लाइट



                                                  - डॉ० डंडा लखनवी
 

विवर रहीम ने शताब्दियों पूर्व पानी एवं मनुष्य, मोती और चूने के बीच के अंतःसंबंधों को भली-भाँति समझ लिया था। इसलिए वे मरते-मरते लिख गए थे कि-‘‘पानी गए न ऊबरे मानुष, मोती, चून।’’ ज़माना बदला तो अर्थ की दादागीरी आ गई। उसके समक्ष इस प्रकार के विचार डस्ट-बिन की वस्तु हो गए। मनुष्य में वो पानी अब बचा कहाँ, मोतियों की अब पहले जैसी अहमियत न रही। हाँ, चूना अभी मैदान में हुआ डटा है। आजकल तो उसकी बड़ी वक़त है। बात अधिक पुरानी नहीं है। गत चुनाव में पिटा एक नेता, जब पान के काराबार में कूदा तो, आलीशान दूकान के उद्घाटन में भारी भीड़ जमा हुई। एक माफ़िया ने फीता काटा, दो ने ए0 के0-47 दागीं, शेष ने हवा में असलहे लहरा कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। सलामी की रस्म पूरी हुईं तो शोफासेटों, कुर्सियों, तथा दरियों पर जम माननीय दादाओं ने करतल ध्वनि की। जबरन आयातित भद्र-जन एक कोने में दुबके रहे। आखि़र नेता की आधुनिक दुकान का उद्घाटन था। कोई ऐसा-वैसा उद्घाटन तो था, नहीं। ऐसी जगह पर जो हो सकता था, वह सब हुआ। गुटका मुख में रख कर जुगाली करने वालों ने जी भर कर जुगाली की। सिगरेट के धुएं से वातावरण को प्रदूषित करने वालों के लिए आज का दिन बड़ा शुभ था। वे मुफ़्त में मिली सिगरेटों से जब तक वहाँ रहे, अपनी मुराद पूरी करते रहे। इस जमावडे़ में जिन्हें बैठने का ठीक-ठाक स्थान नहीं मिल पाया था, वे मंच पर वैसे लदे गए, जैसे भइए लोग रेलगाड़ियों की छतों पर लद जाया करते हैं।

उचित अवसर पा कर एक पत्रकार ने उक्त नेता से पूछा-‘‘आप राजनीति छोड़ कर पान के व्यवसाय में क्यों कूद पड़े हैं?’’ नेता बोला-‘‘मेरा जन्म ‘जनता एक्सप्रेस’ में हुआ था। इस नाते मैं जन्मजात जनता का हूँ। अतः जनता की सेवा करने का पहला हक़ तो मेरा ही बनता है। मैंने अब तक जनता भरपूर की सेवा की है। उसे आगे भी करते रहने का वचन देता हूँ।’’ पत्रकार ने प्रश्न किया-‘‘आपने पिछले चुनाव में कहा था कि गाँव-गाँव में शु़द्ध-जल की व्यवस्था करवा देंगे। कहाँ चला गया आपका वचन?’’ नेता बोला-‘‘देखो, भाई! नशे में किए गए वादों की अब बात मत करो।’’ पत्रकार ने कहा-‘‘वादा करते समय आप.....नशे में तो नहीं थे।’’ नेता ने कहा-‘‘आपका अनुमान ग़लत है। मैं उस समय.....पूरे नशे में था।’’ पत्रकार ने पूछा-‘‘कैसा नशा ?’’ नेता न कहा-‘‘चुनाव का नशा। वह भी तो नशा है।’’ इस वार्तालाप में एक अन्य पत्रकार ने धीरे से दूसरा प्रश्न ठूंस दिया-‘‘आप तो चुनाव हार चुके हैं, ऐसी दशा में जनसेवा कैसे करेंगे?’’ गुटका के उत्तिष्ठ को फर्श की चाँदनी पर उगल कर वे बोले-‘‘ एक बार हमने कह दिया न ! इस बारे में मुझे और कुछ नहीं कहना है। अगर कुछ करना-धरना है तो वह जनता को ही करना है। वह चाहे तो चुनाव जितवा कर देश पर चूना लगवा ले अथवा चुनाव हरवा कर पान पर चूना लगवा ले। मुझे तो दोनों हाल में चूनेदारी ही करनी है। चूने ने मुझे पूरी तरह पकड़ रखा है और मैंने चूने को.......बिना चूने के राजनीति में सफेदी आ ही नहीं सकती है-समझे भाई!’’ वे आगे बोले-चूना लगाना तो अपनी डियुटी मे सामिल है।’’ पत्रकार ने पूछा-‘‘ऐसा क्यों ?’’ उन्होंने उत्तर दिया-‘‘चूना को अंग्रेजी में लाइम कहते हैं न....ऽ....ऽ.... बिना लाइम के देश लाइट में कैसे आएगा ?’’

इस तरह उस नेता के श्वेत विचार सुन कर पत्रकार की मुसकान छूट गई। वे ठहरे आधुनिक युग के महाजन। महाजनों का अनुकरण करना सामाजिकों का सदैव धर्म रहा है। उनका अनुकरण हो भी रहा है अथवा नहीं यह विचार आते ही बुजु़र्गों की बताई हुई कुछ बातें मुझे याद आने लगीं। आज़ादी मिलने के पूर्व अंग्रेजों ने इस देश को बड़ा चूना लगाया था। उनके जाने बाद इस कला को देशी लोगों ने आगे बढ़ाया। अपने देश में इस कला का भविष्य बड़ा उज्ज्वल है। बहुत आश्चर्य नहीं कि विश्वविद्यालयों में चूना लगाने की कला को आगे चल कर ‘लाइम-आर्ट’ के रूप में मान्यता मिल जाए। आजकल तो अनेक क्षेत्रों में चूना लगाने पर मौलिक प्रयोग हो रहे हैं। अस्पतालों में डाक्टर मरीजों को चूना लगाने के लिए प्राइवेट पैथालाजी में भेज देते हैं। अध्यापक-गण विद्यार्थियों को ट्युशनालयों में बुलाते हैं। प्रकाशक लेखकों की रायल्टी पर बड़े प्यार से चूना लगा देते हैं। लेखकगण अमौलिक सामग्री प्रकाशकों को थमा कर चूना लगाने से परहेज़ नहीं करते हैं। सिंथेथिक मिल्क और रगीं हुई सब्जियों से उपभोक्ताओं को चूना-चूना किए जाने के किस्से प्रायः सुनने को मिलते ही रहते हैं।

इधर इस कला की ओर लोगों का रुझान बहुत बढ़ गया है। जिसे देखो वही चुनौटी हाथ में लिए है। लगाने की ज़रा -सी जगह मिलते ही चूना लगा देता है। आप क्या कहते हैं-‘खैनी’? हां, खैनी रगड़ना तो एक बहाना मात्र है। रगड़ने वाला खाता कम है, वह खिलाता ज्यादा है। आम आदमी तो भूखा है। उसे चूना मिल रहा है, तो चूना खा रहा है। भले ही उसका मुंह फट रहा हो, पेट कट रहा हो अथवा काटा जा रहा हो। आज़ादी का वास्तविक अर्थ अब लोग चूना लगाने की आज़ादी मान बैठे हैं। कभी भारत की गणना कृषि-प्रधान देशों में होती थी, परन्तु अब कुर्सी-प्रधान में होती है। कुर्सियों पर बैठते-बैठते हम भूमि की पंगत-परंपरा को बिसार चुके हैं। अब तो हर तरफ कुर्सियों पर बैठने की होड़ लगी है......क्योंकि उन पर बैठ कर चूना लगाने की बात ही कुछ और है।