शनिवार, जनवरी 23, 2010

लाइम-लाइट



                                                  - डॉ० डंडा लखनवी
 

विवर रहीम ने शताब्दियों पूर्व पानी एवं मनुष्य, मोती और चूने के बीच के अंतःसंबंधों को भली-भाँति समझ लिया था। इसलिए वे मरते-मरते लिख गए थे कि-‘‘पानी गए न ऊबरे मानुष, मोती, चून।’’ ज़माना बदला तो अर्थ की दादागीरी आ गई। उसके समक्ष इस प्रकार के विचार डस्ट-बिन की वस्तु हो गए। मनुष्य में वो पानी अब बचा कहाँ, मोतियों की अब पहले जैसी अहमियत न रही। हाँ, चूना अभी मैदान में हुआ डटा है। आजकल तो उसकी बड़ी वक़त है। बात अधिक पुरानी नहीं है। गत चुनाव में पिटा एक नेता, जब पान के काराबार में कूदा तो, आलीशान दूकान के उद्घाटन में भारी भीड़ जमा हुई। एक माफ़िया ने फीता काटा, दो ने ए0 के0-47 दागीं, शेष ने हवा में असलहे लहरा कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराई। सलामी की रस्म पूरी हुईं तो शोफासेटों, कुर्सियों, तथा दरियों पर जम माननीय दादाओं ने करतल ध्वनि की। जबरन आयातित भद्र-जन एक कोने में दुबके रहे। आखि़र नेता की आधुनिक दुकान का उद्घाटन था। कोई ऐसा-वैसा उद्घाटन तो था, नहीं। ऐसी जगह पर जो हो सकता था, वह सब हुआ। गुटका मुख में रख कर जुगाली करने वालों ने जी भर कर जुगाली की। सिगरेट के धुएं से वातावरण को प्रदूषित करने वालों के लिए आज का दिन बड़ा शुभ था। वे मुफ़्त में मिली सिगरेटों से जब तक वहाँ रहे, अपनी मुराद पूरी करते रहे। इस जमावडे़ में जिन्हें बैठने का ठीक-ठाक स्थान नहीं मिल पाया था, वे मंच पर वैसे लदे गए, जैसे भइए लोग रेलगाड़ियों की छतों पर लद जाया करते हैं।

उचित अवसर पा कर एक पत्रकार ने उक्त नेता से पूछा-‘‘आप राजनीति छोड़ कर पान के व्यवसाय में क्यों कूद पड़े हैं?’’ नेता बोला-‘‘मेरा जन्म ‘जनता एक्सप्रेस’ में हुआ था। इस नाते मैं जन्मजात जनता का हूँ। अतः जनता की सेवा करने का पहला हक़ तो मेरा ही बनता है। मैंने अब तक जनता भरपूर की सेवा की है। उसे आगे भी करते रहने का वचन देता हूँ।’’ पत्रकार ने प्रश्न किया-‘‘आपने पिछले चुनाव में कहा था कि गाँव-गाँव में शु़द्ध-जल की व्यवस्था करवा देंगे। कहाँ चला गया आपका वचन?’’ नेता बोला-‘‘देखो, भाई! नशे में किए गए वादों की अब बात मत करो।’’ पत्रकार ने कहा-‘‘वादा करते समय आप.....नशे में तो नहीं थे।’’ नेता ने कहा-‘‘आपका अनुमान ग़लत है। मैं उस समय.....पूरे नशे में था।’’ पत्रकार ने पूछा-‘‘कैसा नशा ?’’ नेता न कहा-‘‘चुनाव का नशा। वह भी तो नशा है।’’ इस वार्तालाप में एक अन्य पत्रकार ने धीरे से दूसरा प्रश्न ठूंस दिया-‘‘आप तो चुनाव हार चुके हैं, ऐसी दशा में जनसेवा कैसे करेंगे?’’ गुटका के उत्तिष्ठ को फर्श की चाँदनी पर उगल कर वे बोले-‘‘ एक बार हमने कह दिया न ! इस बारे में मुझे और कुछ नहीं कहना है। अगर कुछ करना-धरना है तो वह जनता को ही करना है। वह चाहे तो चुनाव जितवा कर देश पर चूना लगवा ले अथवा चुनाव हरवा कर पान पर चूना लगवा ले। मुझे तो दोनों हाल में चूनेदारी ही करनी है। चूने ने मुझे पूरी तरह पकड़ रखा है और मैंने चूने को.......बिना चूने के राजनीति में सफेदी आ ही नहीं सकती है-समझे भाई!’’ वे आगे बोले-चूना लगाना तो अपनी डियुटी मे सामिल है।’’ पत्रकार ने पूछा-‘‘ऐसा क्यों ?’’ उन्होंने उत्तर दिया-‘‘चूना को अंग्रेजी में लाइम कहते हैं न....ऽ....ऽ.... बिना लाइम के देश लाइट में कैसे आएगा ?’’

इस तरह उस नेता के श्वेत विचार सुन कर पत्रकार की मुसकान छूट गई। वे ठहरे आधुनिक युग के महाजन। महाजनों का अनुकरण करना सामाजिकों का सदैव धर्म रहा है। उनका अनुकरण हो भी रहा है अथवा नहीं यह विचार आते ही बुजु़र्गों की बताई हुई कुछ बातें मुझे याद आने लगीं। आज़ादी मिलने के पूर्व अंग्रेजों ने इस देश को बड़ा चूना लगाया था। उनके जाने बाद इस कला को देशी लोगों ने आगे बढ़ाया। अपने देश में इस कला का भविष्य बड़ा उज्ज्वल है। बहुत आश्चर्य नहीं कि विश्वविद्यालयों में चूना लगाने की कला को आगे चल कर ‘लाइम-आर्ट’ के रूप में मान्यता मिल जाए। आजकल तो अनेक क्षेत्रों में चूना लगाने पर मौलिक प्रयोग हो रहे हैं। अस्पतालों में डाक्टर मरीजों को चूना लगाने के लिए प्राइवेट पैथालाजी में भेज देते हैं। अध्यापक-गण विद्यार्थियों को ट्युशनालयों में बुलाते हैं। प्रकाशक लेखकों की रायल्टी पर बड़े प्यार से चूना लगा देते हैं। लेखकगण अमौलिक सामग्री प्रकाशकों को थमा कर चूना लगाने से परहेज़ नहीं करते हैं। सिंथेथिक मिल्क और रगीं हुई सब्जियों से उपभोक्ताओं को चूना-चूना किए जाने के किस्से प्रायः सुनने को मिलते ही रहते हैं।

इधर इस कला की ओर लोगों का रुझान बहुत बढ़ गया है। जिसे देखो वही चुनौटी हाथ में लिए है। लगाने की ज़रा -सी जगह मिलते ही चूना लगा देता है। आप क्या कहते हैं-‘खैनी’? हां, खैनी रगड़ना तो एक बहाना मात्र है। रगड़ने वाला खाता कम है, वह खिलाता ज्यादा है। आम आदमी तो भूखा है। उसे चूना मिल रहा है, तो चूना खा रहा है। भले ही उसका मुंह फट रहा हो, पेट कट रहा हो अथवा काटा जा रहा हो। आज़ादी का वास्तविक अर्थ अब लोग चूना लगाने की आज़ादी मान बैठे हैं। कभी भारत की गणना कृषि-प्रधान देशों में होती थी, परन्तु अब कुर्सी-प्रधान में होती है। कुर्सियों पर बैठते-बैठते हम भूमि की पंगत-परंपरा को बिसार चुके हैं। अब तो हर तरफ कुर्सियों पर बैठने की होड़ लगी है......क्योंकि उन पर बैठ कर चूना लगाने की बात ही कुछ और है।

साहित्यिक स्टींग आपरेशन है: व्यंग्य

                                                                                        
-डा0 गिरीश कुमार वर्मा

व्यंग्य के महत्व को दर्शाने वाली अनेक धटनाएं साहित्यिक वांगमय में विद्यमान हैं। इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय घटना इस प्रकार है कि राजा इन्द्रजीत मुगलकाल में ओरछा का शासक था। केशवदास उनके दरबारी कवि थे। राजा इन्द्रजीत के दरबार में ‘प्रवीनराय पातुर’ नामक एक गायिका थी। ऐसा उल्लेख मिलता है कि उसे काव्य की शिक्षा देने के लिए केशवदास ने ‘रसिक प्रिया’ और ‘कवि प्रिया’ नामक कृतियों की रचना की थी। उनकी प्रेरणा से वह स्वयं भी अच्छी कविता करने लगी थी। उसके गुणों की ख़बर जब मुगल सम्राट अकबर को लगी तो उसने ‘प्रवीनराय पातुर’ को मुगल दरबार में भेज देने का हुक्म दिया। अकबर के आदेश की अवहेलना इन्द्रजीत न कर सका। विवशतावश प्रवीनराय पातुर अकबर के आगरा स्थित दरबार में पहुँचा दी गई। उसके गायन को सुनकर अकबर उस पर विमुग्ध हो गया और स्थायी रूप से राजमहल में रहने हेतु अकबर ने उससे प्रस्ताव किया। यह प्रस्ताव उसे रास न आया।फलतः उसने अधोलिखित दोहा अकबर को लक्ष्य कर कहा- ‘‘विनती राय प्रवीन की, सुनिए  शाह सुजान।  जूठी  पातर  भखत  हैं,  बारी,  बायस, स्वान।।‘‘ इस दोहे में निहित व्यंग्यार्थ ने असर दिखाया और उसने प्रवीनराय पातुर को सम्मान पूर्वक मुक्त कर दिया। सामाजिक सचेतक के रूप में व्यंग्य के व्यापक उपयोग से संबंधित एक अन्य घटना राजा जयसिंह के जीवन से संबंधित है। ऐसा कहा जाता है कि वे अपनी नवोढ़ा पत्नी के रूप माधुर्य के सम्मोहन में फंस कर अपने उत्तरदायित्वों से विमुख हो बैठे थे। अतः राज्य में दुव्र्यवस्था फैल गई थी। उन्हें सन्मार्ग पर लाने के लिए बिहारी ने व्यंग्य का सहारा लिया और लिखा कि-‘‘नहिं परागु नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल। अली,  कली  ही  सौ विन्ध्यौ, आगे कौन हवाल।।’’
   
इस प्रकार के अनेक उदाहरण बीज रूप में हिंदी साहित्य जगत् में यत्र-तत्र बिखरे हुए अवश्य मिलते हैं परन्तु लेखन का ऐसा प्रयास आदिकाल से रीतिकाल तक नितान्त निजी और बहुत ही सीमित मात्र में ही हुआ। हाँ, भक्ति कालीन कवियों में कबीर को अपवाद रूप में स्वीकारा जा सकता है। वस्तुतः व्यंग्य आधुनिक युग की देन है। इस युग में इस विधा के विकसित होने की अनुकूल परिस्थितियाँ पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं। आप सभी इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हैं कि प्राचीनकाल की शासन प्रणालियों में अभिव्यक्ति का लिखित रूप से मौलिक अधिकार आम जनता को प्राप्त नहीं था। उस युग में शासन के हर कार्य को शासक का आदेश माना जाता था। उसके विरुद्ध आवाज उठाने में बड़े ख़तरे थे। ऐसा करना एक प्रकार से राजद्रोह माना जाता था, जिसकी अंतिम परिणति जीवन से हाथ धोना होती थी। वैसे यह खतरा न्यूनाधिक रूप में आज भी विद्यमान है परन्तु आज संसार के अनेक देशों की शासन प्रणालियाँ परिवर्तित हो कर लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ रही हैं, जिसके तहत आम आदमी को अभिव्यक्ति का मौलिक अधिकार मिलता है। यह अधिकार उसमें शक्ति और साहस का संचार करता है और वह विद्रूपताओं के पोषकों का चैराहों पर मुखौटा नोचने हेतु उद्यत हो जाता है। व्यंग्यकार इस मुहिम की अगुवाई कर अराजक तत्त्वों के विरुद्ध जनमत तैयार करता है। पाश्चात्य देशों की व्यवस्था परिवर्तन में व्यंग्य की सशक्त भूमिका रही है। आधुनिक भारत की लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था पाश्चात्य देशों की अपेक्षाकृत नई है इसलिए यहाँ पर व्यंग्य अभी उस स्थिति में नहीं पहुंच पाया है।

हास्य रस है जबकि व्यंग्य रस नहीं। मेरे इस कथन का यह भी अर्थ नहीं है कि व्यंग्य  नीरस होता है। कोई व्यंग्य किस रूप में और किस रस में प्रस्फुटित होगा यह व्यंग्यकार की निजी सूझबूझ और उसके रचना कौशल पर निर्भर करता है। मात्र असंगति-साम्य के कारण व्यंग्य को हास्य के साथ रखे जाने का प्रचलन जो एक बार चला तो वह आज भी चला आ रहा है। व्यंग्य-सत्ता को स्वतंत्र रूप से पहचानने का गंभीर प्रयास हिन्दी में नहीं किया गया। समय आ गया है कि व्यंग्य की सत्ता और महत्ता को हास्य से इतर रखकर मीमांसा की जाए। आधुनिक युग में ज्ञान-विज्ञान के नवीन द्वार जैसे-जैसे खुल रहे हैं, वैसे-वैसे विकास की गति तेज होती जा रही है। इसके साथ ही समाज का सदियों पुराना बंधा-बंधाया ढाँचा चरमरा रहा है। धर्म और कानून की प्रचलित मान्यताएं दिनों-दिन दरक रही हैं। सभ्यता का आवरण ओढ़ कर लोगों में अपना स्वार्थ सिद्ध करने की मनोवृत्ति बढ़ी है। देश और समाज की इस दयनीय स्थिति से चिंतित डा0 शेरजंग गर्ग का कथन है-‘‘पिछले दशक में भारतीय समाज में घर कर गई इसी निर्लज्जता के कारण ही हर शरीफ़ आदमी को गधा और ईमानदार आदमी को बेवकूफ़ समझा जाने लगा था। तस्करी, चोरबाजारी, मुनाफाखोरी और जमाखोरी से पैसा कमाने वाले लोग, गरीब, असहाय, और ईमानदार लोगों को नैतिक दृष्टि से नीचा कर रहे थे, जबकि स्थिति इसके विपरीत होनी चाहिए थी। ऐसी अराजक स्थिति और परिवेश में यदि कोई अस्त्र कलाकार के पास, ईमानदार कलाकार के पास में बच रहा था तो वह हथियार था-व्यंग्य।‘‘  अतः व्यंग्यकार रणमूलक लेखन के द्वारा अपने दायित्व का निर्वाह करने में तत्पर हुआ। 

डा0 हरिशंकर दुबे ने व्यंग्य को सामाजिक लज्जा का कारण माना है। उनके मतानुसार-‘‘व्यंग्य की चोट जिन पर होती है यदि वह व्यंग्य की मार से तिलमिलाते हैं और अपने आप को लज्जित महसूस करते हैं तभी व्यंग्य का सुधारात्मक उद्देश्य पूर्ण हो सकता है। जिस बात को कहने का साहस आम आदमी नहीं कर सकता है, व्यंग्य उसे खुले रूप में कह देता है। इन अर्थों में व्यंग्य समाज का स्वर होता है। व्यंग्य मनुष्य को उसकी भूलों के प्रति ध्यान आकृष्ट कर उसकी भत्र्सना करता है जिससे वह लज्जा का बोध करता है।’’ व्यंग्य की उपादेयता पर डा0 बालेन्दुशेखर तिवारी की सम्मति है-‘‘एक प्रदर्शनी के बाहर बोर्ड लगा हुआ था, प्रवेश निःशुल्क। यह देख कर कई लोग खुशी-खुशी भीतर गए और काफ़ी देर तक घूमते रहे। जब वे बाहर निकलने की तैयारी करने लगे तो उन लोगों ने एक बोर्ड पढ़ा-‘बाहर निकलने का शुल्क पाँच रुपए’। यह अनुभव सिर्फ़ प्रदर्शनी के उन दर्शकों का नहीं है, हिन्दी के समसामयिक व्यंग्य-लेखन के हर पाठक को इस दौर से गुज़रना पड़ता है। व्यंग्य रचनाओं का रसबोध उस तमाशे की तरह है, जिसमें प्रवेश मुफ़्त है और मौज़-मज़े के बाद निकलने का भरपूर शुल्क लगता है। व्यंग्य रचना की शुरुआत भले ही मज़ा दे डाले, लेकिन उसका अंतिम उद्देश्य और प्रभाव केवल मजा़ नही होता। उसमें गंभीरता, चिन्तन, कचोट, और करुणा की संभावनाएं अधिक प्रबल होतीं हैं।’’  मानवीय भूलों का तर्कसंगत समाधान खोजने में व्यंग्य अभिप्रेरक बन कर उपस्थित होता है। डा0 मलय का कथन है-‘‘सभी सत्य मूल्यवान हैं और व्यंग्यात्मक आलोचना जबकि वह भूलों का समाधान और निर्णयों में सुधार करती है, तब वह उपयोगी मानी जा सकती है। वह जन साधारण की रुचि का परिष्कार करता है, जन साधारण का कल्याण करता है। यहाँ स्पष्ट रूप से ‘भूलों का समाधान’ एवं ‘निर्णयों का सुधार’ समाज की विस्तृत विचारणा के दो प्रमुख स्तम्भ माने जा सकते हैं।’’
 

व्यंग्य में विखंडन का भाव नवसर्जन के द्वार खोलता है। व्यंग्य के कार्य-पथ पर निन्दा, विरोध, तिरस्कार, क्षोभ, भर्त्सना आदि बाधक तत्त्व के रूप में उपस्थित नहीं होते अपितु व्यंग्यकार इनके माध्यम से व्यवस्था की खोट का दिग्दर्शन करा कर परिवर्तन की बुनियाद तैयार करता है। अपने समर्थन में जनमत बनाता है। डा0 सुरेन्द्र वर्मा व्यंग्य को व्यक्ति के स्वाभाविक गुण के रूप में आँकते हैं। अपने कथन की पुष्टि में वे तर्क देते हैं-‘‘जिस तरह हम खाते-पीते, सोते-उठते, मनोरंजन करते, खेलते-बतियाते हैं, उसी तरह हम सब समय-समय पर व्यक्तियों, व्यवस्थाओं और रीति-रिवाज़ों पर व्यंग्य कसते आए हैं। इस अर्थ में व्यंग्य आवश्यक रूप से एक भाषायी कार्य भी है।’’  व्यंग्य-भाषा की प्रभावकारी परिणति के सम्मुख संबोधित व्यक्ति को बगलें झाँकने पर विवश होना पड़ता है।


व्यंग्य वस्तुतः गद्याधारित होता है। व्यंग्य-भाषा को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए व्यंग्यकार नए-नए बिम्बों, प्रतीकों, उपमाओं, विशेषणों आदि से अनेकनेक अर्थमुखी छटाओं की सृष्टि करता है। स्वातंत्र्योत्तर व्यंग्य साहित्य में डायरी, पत्र, पैरोडी, फन्तासी, मिथक आदि सभी प्रचलित शैलियों का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार साहित्य की अनेक प्रचलित विधाओं को अपने छत्र से यह आच्छादित करता है। हिंदी के अनेक प्रतिभाशाली व्यंग्यकारों ने शैलीगत प्रयोगों से कथ्य को संप्रेषणीय और प्रभावकारी बनाया है। व्यंग्य की भाषा के संदर्भ में डा0 गोविन्द चातक का अभिमत है-‘‘छल की यह भाषा प्रेषक को एक रूप में तथा संबोधित पात्र को बिल्कुल दूसरे रूप में अर्थबोध कराती है और इस प्रकार कथ्य और चरित्र के लिए एक प्रकार के मुखौटे का काम देती है। व्यंग्य भाषा में अनेक पर्तें होती हैं और हर पर्त का उद्घाटन भाषा के लचीलेपन का शंखनाद करता है।’’
 

व्यंग्य अपने लक्ष्य तक बहुरूपिए जैसा वेश धारण कर पहुँचता है। इसलिए व्यंग्यार्थ बोध न हो पाने से भ्रम की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। छùवेश में व्यंग्य का स्वरूप कैसा भी दिखता हो मूलरूप में वह सत्य का सहचर रहता है। डा0 बालन्दुशेखर तिवारी के मतानुसार-‘‘कुशल व्यंग्यकार को अपने परिवेश की वास्तविकता के सहारे अत्याचारों और त्रुटियों के विरुद्ध अपना आन्दोलन छेड़ना पड़ता है। सत्य के बिना यह लड़ाई कागजी लग सकती है, लेकिन जब व्यंग्य सत्य का सहचर बन जाता है, तो उसका घाव गहरा हो जाता है और प्रभाव दीर्घकाल तक बना रहता है।’’  अपने कथन के समर्थन में वे तर्क देते हैं-‘‘व्यंग्यकार दो टूक बातें करने का अभ्यासी होता है और उसके रचनात्मक तेजाब से सभी तरह के वाह्य प्रभाव भस्म हो जाते हैं।’’
 

व्यंग्य में सन्निहित उसकी आघातकारी शक्ति और हिंसात्मक प्रवृत्ति पर डा0 सुरेन्द्र वर्मा अपना दृष्टिकोण इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं-‘‘सच्चे व्यंग्यकार का कार्य सामाजिक दोषों के प्रति अपने वाजिब गुस्से को अभिव्यक्त करना है। जाहिर है उसका छिद्रान्वेषण सत्य और स्पष्टवादिता पर आधारित होता है। व्यंग्य इसलिए मार कर पाता है। व्यंग्य चोट करने का एक सबल हथियार है। एक डंडा, एक चाकू या एक बन्दूक की तरह यह है। व्यंग्य के अतिरिक्त और हथियार सतही तौर पर अधिक हिंसक लगते हैं लेकिन व्यंग्य भी अहिंसक नहीं है।’’  व्यंग्य की हिंसा संबोधित पात्र को शारीरिक रूप से भले ही चोट न पहुँचाती हो किन्तु भावनात्मक रूप से उसे इतना आहत कर देती है कि मानसिक घाव शारीरिक घाव से ज्यादा गहरा, गंभीर तथा देर तक बना रहने वाला होता है। समाज-सचेतक के रूप में व्यंग्यकार मानवीय व्यवहारों, स्वभावों आदि के अंतर्विरोधों, विसंगतियों, आडंबरों, आदि का पर्दाफ़ाश करता है। वह समकालीन परिस्थितियों का द्रष्टा मात्र ही नहीं, एक भोक्ता भी होता है। व्यंग्य-लेखन यथार्थ के धरातल पर तथ्यपरक, तर्कसंगत तथा युक्तिसंगत हुआ करता है। जीवन की समीक्षा करने की व्यंग्यकार की अपनी दृष्टि होती है, जिसके गर्भ में बदलाव की तीव्र उत्कंठा दृष्टिगत होती है। व्यंग्य को स्वातंत्र्योत्तर काल की एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि माना जा सकता है। इस युग के कुछ व्यंग्य-सर्जक एवं समीक्षक इसकी सत्ता को हास्य से पृथक् स्वीकारते हैं। आधुनिक व्यंग्य रचनाओं में व्यक्ति की सफलता-असफलता, आस्था-अनास्था हास्य-रुदन, नैतिकता-अनैतिकता, आडंबर-पाखंड आदि नाना दुर्बलताओं को अनावृत करने की चेष्टा की गई है। व्यंग्य आम आदमी द्वारा भोगी जा रही त्रासदियों का एक जीवन्त दस्तावेज़ बन कर उभरा है। व्यंग्य का कार्य संबोधन कर्ता को केवल आहत करना नहीं, वह करुणा के निकट है। इस विधा में मानवीय करुणा एवं संवेदना को प्रमुखता से उकेरा गया है। अनेक समर्थ व्यंग्यकार इस दौर में प्रकाश में आए हैं जिनकी रचनाओं ने पाठकों के मर्म को बहुत गहरे तक कुरेदा है। इस प्रसंग में हरिशंकर परसाईं और शरद जोशी का नाम अग्रिम पंक्ति में रखा जा सकता है।
 

लखनऊ के स्मृतिशेष व्यंग्यकारों की कृतियों की शंखला में निराला कृत ‘बिल्लेसुर बकरिहा’, ‘कुकुरमुत्ता’, श्रीनारायण चतुर्वेदी कृत ‘राजभवन की सिगरेटदानी’, भगवतीचरण वर्मा कृत ‘रुपया तुम्हें खा गया’ अमृतलाल नागर कृत ‘सेठ बाँकेमल’ नामक रचनाओं में व्यंग्य-सृष्टि हुई है। ये रचनाएं यथार्थपरक दृष्टि के साथ मानवीय करुणा को उद्घटित कर युगबोध कराती हैं। स्वातंत्र्योत्तर काल के पूर्व यहाँ भी व्यंग्य को हास्य से जोड़ कर देखा जाता रहा था। परन्तु अब वह स्थिति नहीं है। लखनऊ के आधुनिक व्यंग्यकारों ने हास्य से इतर व्यंग्य का अस्तित्व स्वीकार कर साहित्य-लेखन किया है। ऐसे रचनाकारों में श्रीलाल शुक्ल, रामबचन वर्मा, कौशलेन्द्र पाण्डेय, गिरीश पाण्डे, के0 कान्त अस्थाना, डंडा लखनवी आदि का नाम लिया जा सकता है। इन रचनाकारों ने जीवन और जगत् से प्राप्त अपने अनुभवों को एकांकी बुनावट में नहीं उसकी संश्लिष्टता में प्रस्तुत किया है। अतएव इनकी रचनाओं में संघर्षशील मनुष्य का स्वर ध्वनित हुआ है। जीवन की आपाधापी और सामाजिक विद्रूप से त्रस्त मनुष्य के संघर्ष को वाणी देने में ये व्यंग्यकार पीछे नहीं रहे हैं। इन रचनाकारों के लेखन में व्यंग्य का पैनापन उसकी प्रहार क्षमता तथा मानव-संघर्ष के प्रति उसकी सहानुभूति इस तथ्य का ज्वलंत प्रमाण है। दृष्टि की व्यापकता और परिवर्तन की चाह यही दो बिन्दु हैं जो समकालीन लेखन से उनकी अलग पहचान बनाने में सहायक हैं।
 

व्यंग्य के माध्यम से साहित्यकारों द्वारा किए जा रहे सामाजिक परिष्कार के प्रबल प्रयासों के बावजूद समाज में अपेक्षित बदलाव न आ पाने के कारण कुछ कारण हैं। उन कारणों पर डा0 कमलेश शर्मा का अभिमत है-‘‘जिस व्यंग्य का काम तिलमिला देना है, जिस व्यंग्य की धार से ‘काटो तो खून नहीं’ जैसी स्थिति हो जाती थी, उसी पर आज सब हँसते हैं। व्यंग्य के नाम पर ऐसा कुछ बाजार में लाया जाने लगा कि उसे पढ़ कर रोना भी नहीं आए। पूँजीवादी अखबारों के दैनिक स्तम्भों ने व्यंग्य की धार को भोथरा कर के रख दिया है। अपने आप को ‘मार्केट’ में बनाए रखने के लिए, संपादकों को खुश करने जैसी हल्की-फुल्की चीजें लिखी जाने लगीं, जो अन्दर से, बाहर से, ऊपर से, नीचे से, कहीं से भी व्यंग्य तो है ही नहीं, पर इस नाम पर छप ज़रूर रहा है। पाठक विवश है, वह बेचैन है, पर वह क्या करे ?’’
 

डा0 शर्मा की उपर्युक्त टिप्पणी में जिस ओर संकेत किया गया है, उसे यथास्थितिवादी व्यवस्था का दोष ही माना जा सकता है, व्यंग्य का नहीं। जब तक मानव है और मानवीय कमजोरियाँ हैं व्यंग्य की सार्थकता और उपादेयता निर्विवादित रहेगी। आज तात्कालिकता व्यंग्य के लिए एक बड़ा ख़तरा है। व्यंग्यकार समाज विरोधियों को अपनी व्यूह रचना में घेरता है। उजले मुखौटे के नीचे छिपे हुए घिनौने चेहरे का पर्दाफाश करता है। यह कार्य किसी स्टींग आपरेशन से कम नहीं होता। इसके लिए बौद्धिक सूझबूझ, प्रखर रचना- कौशल तथा जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता नितान्त आवश्यक है। फौरी तात्कालिकता व्यंग्य की कांति को धूमिल कर देती है। इस खतरे के प्रति हरिशंकर परसाईं सचेत ने करते हुए लिखा है-‘जो अपने युग के प्रति ईमानदार नहीं होता वह अनंतकाल के प्रति कैसे हो लेता है, मेरी समझ से परे है।’  आज का व्यंग्यकार अपने वर्तमान के प्रति ईमानदार हो यह आवश्यक है, किन्तु वह रेडीमेड व्यंग्य तैयार करने लगे यह उचित नहीं। कलम ले कर सुबह से घटने वाली हर घटना पर लिखने के लिए बैठ जाए और विषय का तत्कालीन महत्त्व समाप्त होते ही उसकी रचना दम तोड़ दे, इसे लेखकीय ईमानदारी नहीं कहा जा सकता।